अहमद फ़राज़ की गज़ले ।।
ग़ज़ल -1
अजब जूनून-ए-मुसाफ़त में घर से निकला था,
ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था,
ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया,
अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था,
ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा,
कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था,
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया,
कि दिल का दर्द मेरे चश्म-ए-तर से निकला था,
वो कैसे अब जिसे मजनू पुकारते हैं ‘फ़राज़’,
मेरी तरह कोई दिवाना-गर से निकला था,
ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था,
ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया,
अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था,
ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा,
कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था,
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया,
कि दिल का दर्द मेरे चश्म-ए-तर से निकला था,
वो कैसे अब जिसे मजनू पुकारते हैं ‘फ़राज़’,
मेरी तरह कोई दिवाना-गर से निकला था,
ग़ज़ल -2
ज़िन्दगी यूँ थी कि जीने का बहाना तू था
हम फ़क़त जेबे-हिकायत थे फ़साना तू था
हमने जिस जिस को भी चाहा तेरे हिज्राँ में वो लोग
आते जाते हुए मौसम थे ज़माना तू था
अबके कुछ दिल ही ना माना क पलट कर आते
वरना हम दरबदरों का तो ठिकाना तू था
यार अगियार कि हाथों में कमानें थी फ़राज़
और सब देख रहे थे कि निशाना तू था ।।
हम फ़क़त जेबे-हिकायत थे फ़साना तू था
हमने जिस जिस को भी चाहा तेरे हिज्राँ में वो लोग
आते जाते हुए मौसम थे ज़माना तू था
अबके कुछ दिल ही ना माना क पलट कर आते
वरना हम दरबदरों का तो ठिकाना तू था
यार अगियार कि हाथों में कमानें थी फ़राज़
और सब देख रहे थे कि निशाना तू था ।।
ग़ज़ल -3
जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना
मुझे गुमाँ भी ना हो और तुम बदल जाना
ये शोलगी हो बदन की तो क्या किया जाये
सो लाजमी है तेरे पैरहन का जल जाना
तुम्हीं करो कोई दरमाँ, ये वक्त आ पहुँचा
कि अब तो चारागरों का भी हाथ मल जाना
अभी अभी जो जुदाई की शाम आई थी
हमें अजीब लगा ज़िन्दगी का ढल जाना
सजी सजाई हुई मौत ज़िन्दगी तो नहीं
मुअर्रिखों ने मकाबिर को भी महल जाना
ये क्या कि तू भी इसी साअते-जवाल में है
कि जिस तरह है सभी सूरजों को ढल जाना
हर इक इश्क के बाद और उसके इश्क के बाद
फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना
शोलगी - अग्नि ज्वाला, मुअर्रिख - इतिहास कार
मकाबिर - कब्र का बहुवचन, साअते-जवाल - ढलान का क्षण
मुझे गुमाँ भी ना हो और तुम बदल जाना
ये शोलगी हो बदन की तो क्या किया जाये
सो लाजमी है तेरे पैरहन का जल जाना
तुम्हीं करो कोई दरमाँ, ये वक्त आ पहुँचा
कि अब तो चारागरों का भी हाथ मल जाना
अभी अभी जो जुदाई की शाम आई थी
हमें अजीब लगा ज़िन्दगी का ढल जाना
सजी सजाई हुई मौत ज़िन्दगी तो नहीं
मुअर्रिखों ने मकाबिर को भी महल जाना
ये क्या कि तू भी इसी साअते-जवाल में है
कि जिस तरह है सभी सूरजों को ढल जाना
हर इक इश्क के बाद और उसके इश्क के बाद
फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना
शोलगी - अग्नि ज्वाला, मुअर्रिख - इतिहास कार
मकाबिर - कब्र का बहुवचन, साअते-जवाल - ढलान का क्षण
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