अहमद फ़राज़ की बेहतरीन शायरी।।
कांच की तरह होते हैं गरीबों के दिल फ़राज़
कभी टूट जाते हैं तो कभी तोड़ दिए जाते हैं.
ऐसा डूबा हूँ तेरी याद के समंदर में "फ़राज़"
दिल का धड़कना भी अब तेरे पैरों की सदा लगती है।.
अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाये हम
ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाये हम.
अहमद फ़राज़
अब दिल की तमन्ना है तो ये काश यही हो
आँसू की जगह आंख से हसरत निकल आये.
Ahmad faraz
अब तेरे जिक्र पे हम बात बदल देते हैं
कितनी रग़बत थी तेरे नाम से पहले पहले
अब के हैम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिले
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले.
अहमद फ़राज़
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ
Ahmad faraz
अब तो ये आरजू है कि वो जख्म खाइये
ता-जिंदगी ये दिल न कोई आरजू करे.
अहमद फ़राज़ की बेहतरीन शायरी.
किसे ख़बर वो मोहब्बत थी या रक़ाबत थी
बहुत से लोग तुझे देख कर हमारे हुए.
Ahmad faraz.
ऐसी तरीकियाँँ आँखों मे बसी हैं कि "फ़राज़"
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग
किसी बेवफा की खातिर ये जुनूं"फ़राज़" कब तक
आज एक और बरस बीत गया उस के बगैर
जिस के होते हुये होते थे जमाने मेरे.
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की
सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़
सो हम भी मो'जिज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं
सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं
सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की
जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं
सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं
वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
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