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अहमद फ़राज़ Ahmad faraz ki behtrin shayri.ग़ज़ल।।




अहमद फ़राज़ की शायरी ग़ज़ल।।




दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों

आँखों की सुर्ख़ लहर है मौज-ए-सुपरदगी
ये क्या ज़रूर है के अब अंगड़ाइयाँ भी हों

हर हुस्न-ए-सादा लौ न दिल में उतर सका
कुछ तो मिज़ाज-ए-यार में गहराइयाँ भी हों

दुनिया के तज़किरे तो तबियत ही ले बुझे
बात उस की हो तो फिर सुख़न आराइयाँ भी हों

पहले पहल का इश्क़ अभी याद है "फ़राज़"
दिल ख़ुद ये चाहता है के रुस्वाइयाँ भी हों


                                    ग़ज़ल

ज़िन्दगी यूँ थी कि जीने का बहाना तू था
हम फ़क़त जेबे-हिकायत थे फ़साना तू था

हमने जिस जिस को भी चाहा तेरे हिज्राँ में वो लोग
आते जाते हुए मौसम थे ज़माना तू था

अबके कुछ दिल ही ना माना क पलट कर आते
वरना हम दरबदरों का तो ठिकाना तू था

यार अगियार कि हाथों में कमानें थी फ़राज़
और सब देख रहे थे कि निशाना तू था

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